1
कल सेनापति का
फ़रमान आया
हमारी गोलियां खाओ
या
देशद्रोही कहलाओ…..
एक समूचा मुल्क
खड़ा हो गया सीना खोले
सेनापति की संगीनो के सामने.
अब क्या करोगे सेनापति?
जब सेनापति
राजा की बोली बोलने लगे
और
राजा
तोप की बारूद और
पैलेट गनो के
छर्रों में तब्दील हो जाए
तो एक पूरा का पूरा मुल्क
तब्दील हो जाता है
देशद्रोहियों में.
बाक़ी रह जाते हैं
फिर भी कुछ चाटुकार
अद्रुश्य पूंछ हिलाते लोग
टीवी पर रंगे-पुते सियारों
की एक जमात.
लेकिन जब पूरा का पूरा
मुल्क ही देशद्रोही हो जाए
तो ऐसा करो
सेनापति/राजा
ब्रेख्त का कहा मानो
और अपने लिये
कोई अलहदा मुल्क
तलाश कर लो
18.2.17
2
कश्मीर तुम्हारे ख्वाबों की सैरगाह
भर नही रही
सेनापति.
न ही कश्मीर
तुम्हारे चेहरे पर अड़ियल
लगाम सा कसा कोई टोप है
जिसे तुम टांग दोगे
खूंटी पर.
कश्मीर एक धड़कता हुआ
मुल्क है
जिसे तुम कभी
जीत नहीं पाए.
अपने तमाम
लाव-लश्कर के बावजूद.
राजाओं/महाराजाओं के
‘दरो-दीवारों पे
उग रहा है सब्ज़ा‘.
सेनापति
मत भूलो
तुम्हारे चेहरे पर
लगाम से कसे
इस बेहूदे से टोप का
लोहा जहां गलता है
उन फ़ैक्ट्रियों की
भट्टियों में रौशन होता है
मेहनत करने वालों का
पसीना.
उस पसीने की डोर
जुड़ी है इतिहास के
उन लमहों से
जिसने पलट के रख दिया था
समय का चक्र.
अपने दम्भ को
अपने टोप के साथ
टांग दो खूंटी पर/ सेनापति
राजा की बोली बोलोगे तो
वक्त के हाथो मारे जाओगे.
जनता तुम्हारे
बेहूदा टोप को
गला कर अपने श्रम की भट्टी में
बना लेगी
अपना हल.
फ़सलों का लहलहाना तो तय है…..
18.2.17
3
एक पूरा राज्य उद्वेलित है
पूरा का पूरा
मेरे भीतर
तुम्हारे पैलेट गनो,
तोप-बन्दूकों-बमों
के सामने
मासूम पत्थरों की क्या बिसात
फिर भी हार रहे हो तुम
हरेक जंग.
तुम पूछते हो
कहां से आते हैं ये पत्थर
हम पूछते हैं
कहां से आती हैं
पैलेट गनें,
अमरीका से? इज़राइल से?
जितने छर्रे
कश्मीर की खूबसूरत
आंखों में धंसे
जितनी गोलियां
कश्मीर के धड़कते दिलों में समाईं
सारी की सारी
तब्दील हो गईं
बग़ावती पत्थरों में
जिन्हें तुम पत्थर कहते हो
वि महज़ पत्थर नहीं,
दिल के टुकड़े हैं कश्मीरियों के
आज़ादी के लहू से
लबरेज़
तुम्हारी हत्यारी
गोलियों पर
भारी हैं
बहुत भारी..
14.9.16
4
यहां क़ब्र को भी क़ैद में रखने का चलन है
साहबान
ये दुनिया की सबसे बड़ी ’जम्हूरियत‘ है
यहां हरेक सांस संगीनों की ज़द में है
यहां हरेक आस पे मौत का पहरा है
यहां क़ब्र को भी क़ैद में रखने का चलन है.
यहां हरेक बाप ख़ौफ़ज़दा है
उसे गोलियों से छलनी हरेक शरीर
अपने बेटे बशीर का लगता है….
यहां ‘उम्मीद से‘
हरेक औरत
यही दुआ करती है
‘या मौला मुझे आरिफ़, रफ़ीक, हनीफ़…… न देना!
मुझे नन्ही रूही, सबा, फ़िरदौस………….. बख्शना!!
यहां होश संभालते ही जमील देखता है
अपनी मां की आंखों में एक अन्तहीन इंतज़ार
हर आहट पर वह चौंक उठती है
कहीं ये उसके गुम हो गए ख़ाविन्द की पदचाप तो नहीं
पिछले दस सालों में
अपनी आधी बेवा मां की कलप
जमील के सीने में
कभी न मिटने वाली चित्रलिपि में
अंकित हो गयी है.
सर्द सियाह रातों में मां जब भी गहरी सांस लेती है.
जमील के सीने में आंधी चलने लगती है.
अब उसकी मां
जवान होते अपने बेटे को देख
सिहर उठती है बारहा.
सरे रात उठ-उठ कर
वह उसकी जगह टटोल जाती है हर बार
कहीं वह भी ख़ाली तो नहीं हो गयी
हमेशा के लिए…..
जी हां साहबान
ये कश्मीरियों का ज़हन है
जिसे दुनिया की सबसे बड़ी ‘जम्हूरियत‘ ने
तब्दील कर दिया है एक सहमे हुए जज़्बात में.
सीने में लगने वाली हरेक गोली
केवल एक जान ही नहीं लेती
यह बहुत गहराई से धंस जाती है
यहां के हरेक ज़िन्दा बाशिन्दे के दिमाग में
बारूद और मुलायम त्वचा के जलने की
मिली जुली चिरायंध
यहां की मिट्टी की सुगन्ध में घुलमिल गयी है…
यहां चिनार के दरख्तों पर
तवारीख दर्ज है
याद कीजिये 1947 का वह वक्त
लहू तबसे रिस रहा है.
दग़ाबाजी का ख़न्ज़र
बहुत गहरे धंसा है कश्मीरियत के सीने में.
साहबान
बेशक
ये दुनिया की सबसे बड़ी ‘जम्हूरियत‘ है
और
यहां अपने अजीज़ की मौत पर भी
शोक मनाने की इजाज़त नहींं.
शायद इसलिए
कर्फ़्यू के इस भयावह सन्नाटे में
यहां ग़म और ग़ुस्सा
झेलम के बहते पानी में
घुलता जा रहा है मुसलसल
एक साफ-शफ़्फ़ाक (विचार) धारा बन कर……..
5
कब तलक
यूं ही बैठे रहोगे
सिर झुकाए
डरते हालात से
कि न जाने कौन सा प्रहार
चकनाचूर कर जाए
तुम्हारे कांच के राजमहल को
तुम्हारी ख़्वाबों की सैरगाह को.
वह पत्थर
तुम्हारी इबारत की इमारत में
जड़ने को बेताब है
जो कल डूब गया
दरिया-ए-झेलम में
उस बारह साल के
बच्चे की मुट्ठी में बन्द.
उस पत्थर का निशाना
तुम्हारी तरफ तो कतई नहीं था.
देखो
कौन सा वह जज़्बा है
जो नौ साल के
फरहान से
यह कहलवाता है कि
‘अम्मी अब हमारा इंतज़ार मत करना—”
और
सीने में गोली लेकर
रात गए वह
इंतज़ार करती अपनी
अम्मी की गोद में लौटता है.
फिर वह अन्तहीन सिलसिला
जब अन्तिम यात्रा ही
प्रतिरोध का सबसे काव्यात्मक
प्रतीक बन जाती है.
जुलूस में चलते वक्त
फिर सीने में गोलियां
फिर अन्तिम यात्रा…….
फिर सीने में उतरती गोलियां
मुसलसल चलने वाला
प्रतिरोध का यह सफ़र…………….
इसके हमसफ़र बनो
मरना तो एक दिन है ही.
फर्क इससे पड़ता है कि
कौन ‘किस धज से
इस जहां से निकलता है‘.
वादिए फ़िरदौस में
जब मौत जीवन से
ज़्यादा ख़ूबसूरत बन जाए
तब यूं ही डर डर के जीना
लिजलिजे स्पर्श सा
असहनीय हो उठता है.
इसलिए
सीधी करो रीढ़
अरे! सीने में धंसी
गोली न सही
नन्ही-नन्ही मुट्ठियों में
क़ैद पत्थर ही बन जाओ.
2010